आंसुओं कितनी व्यथा के पिघलने पर तुम बहे,
मत झरो, मेरे प्रणयपथ के तुम्हीं पाथेय हो।।
चुम्बनों के दंश अंकित भुजवलय में,
सालते हैं हुक सी उठती ह्रदय में,
उन्हीं अधरों की अधूरी प्यास के,
तुम विलक्षण पेय हो ।।1।।
स्वर्ण की दुर्भेद्य चट्टानें खड़ी हैं,
मार्ग में ही और बाधायें बड़ी हैं,
नियति से मैं तो पराजित हो चुका,
तुम्हीं अपराजेय हो ।।2।।
नीड़ का पंक्षी सुनहरे पर लगा कर,
उड़ गया उर में गहन पीड़ा जगाकर।
दर्द के सैलाब का उपमान मैं,...
और तुम उपमेय हो ।।3।।
आज प्राणों को सघन नीहार घेरे,
विकल मन को मौन हाहाकार घेरे।
वेदना की थाह कैसे मिल सकेगी,
जब तुम्हीं अज्ञेय हो ।।4।।

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