शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

आओ बादल!


आ जाओ जलनिधि के प्रतिनिधि,
प्यासी धरा मगन हो जाए।
ऐसे बरसो जलधर मेरे,
मरुथल भी मघुवन हो जाए।

प्रखर ताप सहकर सूरज का,
पीकर बड़वानल ज्वालाएं।
सागर सौंप रहा पुरवा को,
मनमोहिनी मेघ मालाएं।
सतरंगी साम्राज्य देखकर
पागल नील गगन हो जाये।।1।।

आकुल पंछी पंख पसारे,
नभ की सीमाएं छूने को।
प्यासे हिरना भटक रहे हैं,
जल की छायायें छूने को।
रटते-रटते विकल चातकी
कहीं न बैरागन हो जाए  ।।2।।

स्वाति-स्वाति हो गई चातकी।
कैसे यायावर हो बादल।
ठहर गए निर्जन घाटी में।
तुम तो रत्नाकर के वंशज हो,
अमृत कोष भर लो माटी में।
सोंधी गंध घुले सांसों में,
तन मन नन्दन वन हो जाए ।।3।।

कालिदास से पूछ रहे हैं,
शिप्रा के तट सांझ सकारे।
प्रियतम की पाती लाए जो,
कहां खो गए घन कजरारे।।
यक्ष प्रिया भी आशंकित है,

व्यर्थ न यह सावन हो जाए ।।4।।

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शिवपूजन 'यायावर'

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